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स्वद॑स्व ह॒व्या समिषो॑ दिदीह्यस्म॒द्र्य१॒॑क्सं मि॑मीहि॒ श्रवां॑सि। विश्वाँ॑ अग्ने पृ॒त्सु ताञ्जे॑षि॒ शत्रू॒नहा॒ विश्वा॑ सु॒मना॑ दीदिही नः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svadasva havyā sam iṣo didīhy asmadryak sam mimīhi śravāṁsi | viśvām̐ agne pṛtsu tāñ jeṣi śatrūn ahā viśvā sumanā dīdihī naḥ ||

पद पाठ

स्वद॑स्व। ह॒व्या। सम्। इषः॑। दि॒दी॒हि॒। अ॒स्म॒द्र्य॑क्। सम्। मि॒मी॒हि॒। श्रवां॑सि। विश्वा॑न्। अ॒ग्ने॒। पृ॒त्ऽसु। तान्। जे॒षि॒। शत्रू॑न्। अहा॑। विश्वा॑। सु॒ऽमनाः॑। दी॒दि॒हि॒। नः॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:22 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:27» मन्त्र:7 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:22


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! आप (अस्मद्र्यक्) जो हम लोगों को ज्ञान, गमन, प्राप्ति और सत्कार देता है वह (हव्या) भोजन करने योग्य (श्रवांसि) अन्न वा श्रवणों का (स्वदस्व) भोग करै (इषः) विज्ञानों का (सम्, दिदिहि) प्रकाश करो और अन्न वा श्रवणों को (सम्, मिमीहि) तोलो और सुनो जिससे कि आप (पृत्सु) संग्रामों में (तान्) उनको (विश्वान्) सम्पूर्ण (शत्रून्) शत्रुओं को (जेषि) जीतते हो जिससे (विश्वा) सब (अहा) दिनों को (सुमनाः) प्रसन्नचित्त होते हुए (दीदिहि) प्रकाशित होइये और (नः) हम लोगों को प्रकाशित कीजिये ॥२२॥
भावार्थभाषाः - राजा आदि पुरुषों को चाहिये कि बुद्धि के नाश करनेवाले अन्न आदि का त्याग करना कहके विज्ञान बढ़ाय के लोक से वार्ताओं को सुनके सेनाओं की वृद्धि करके और शत्रुओं को जीतकर सब काल में आनन्द और शोक का त्याग करें और धर्म से प्रजाओं का पालन करके विषयों में आसक्ति का त्याग करके आनन्द करना चाहिये ॥२२॥ इस सूक्त में राजा, विद्वान्, प्रजा, अध्यापक, शिष्य, ईश्वर, श्रोता, वक्ता और शूरवीर के कर्म्म और गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह चौवनवाँ सूक्त और सत्ताईसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे अग्ने त्वमस्मद्र्यक् सन् हव्या श्रवांसि स्वदस्वेषः सं दिदीहि। श्रवांसि सं मिमीहि यतस्त्वं पृत्सु तान् विश्वाञ्छत्रूञ्जेषि तस्माद्विश्वाहा सुमनाः सन् दीदिहि। नोऽस्माँश्च दीदिहि ॥२२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (स्वदस्व) भुङ्क्ष्व (हव्या) अत्तुमर्हाणि (सम्) (इषः) विज्ञानानि (दिदीहि) प्रकाशय (अस्मद्र्यक्) योऽस्मानञ्चति सः (सम्) (मिमीहि) संमिमीष्व (श्रवांसि) अन्नानि श्रवणानि वा (विश्वान्) सर्वान् (अग्ने) पावक इव वर्त्तमान (पृत्सु) सङ्ग्रामेषु (तान्) (जेषि) जयसि (शत्रून्) (अहा) दिनानि (विश्वा) सर्वाणि (सुमनाः) प्रसन्नचित्तः (दीदिहि) प्रकाशस्व प्रकाशय वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् ॥२२॥
भावार्थभाषाः - राजादिपुरुषैर्बुद्धिविनाशकान्नादित्यागमुक्त्वा विज्ञानं वर्द्धयित्वा लोकतो वार्त्ताः श्रुत्वा सेना उन्नीय शत्रूञ्जित्वा सर्वदा हर्षशोकरहितैर्भवितव्यं धर्म्येण प्रजाः संपाल्य विषयासक्तिं विहायाऽऽनन्दितव्यमिति ॥२२॥ अत्र राजविद्वत्प्रजाऽध्यापकशिष्येश्वरश्रोतृवक्तृशूरवीरकर्मगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति चतुःपञ्चाशत्तमं सूक्तं सप्तविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - राजा इत्यादींनी बुद्धीचा नाश करणाऱ्या अन्नाचा त्याग करावा. विज्ञान वाढवावे. लोकांच्या वार्ता ऐकाव्या. सेनेची वृद्धी करावी. शत्रूंना जिंकावे. सदैव हर्ष व शोकाचा त्याग करावा. धर्माने प्रजेचे पालन करून विषयांच्या आसक्तीचा त्याग करावा व आनंद मिळवावा. ॥ २२ ॥